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उषो॒ वाजे॑न वाजिनि॒ प्रचे॑ताः॒ स्तोमं॑ जुषस्व गृण॒तो म॑घोनि। पु॒रा॒णी दे॑वि युव॒तिः पुर॑न्धि॒रनु॑ व्र॒तं च॑रसि विश्ववारे॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uṣo vājena vājini pracetāḥ stomaṁ juṣasva gṛṇato maghoni | purāṇī devi yuvatiḥ puraṁdhir anu vrataṁ carasi viśvavāre ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उषः॑। वाजे॑न। वा॒जि॒नि॒। प्रऽचे॑ताः। स्तोम॑म्। जु॒ष॒स्व॒। गृ॒ण॒तः। म॒घो॒नि॒। पु॒रा॒णी। दे॒वि॒। यु॒व॒तिः। पुर॑म्ऽधिः। अनु॑। व्र॒तम्। च॒र॒सि॒। वि॒श्व॒ऽवा॒रे॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:61» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:8» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सात ऋचावाले एकसठवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में प्रातःकाल की वेला की उपमा से स्त्री के गुणों को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वाजिनि) विज्ञानवाली (मघोनि) अत्यन्त धन से युक्त (देवि) सुन्दर (विश्ववारे) सब प्रकार वरने योग्य स्त्री ! तुम (उषः) प्रातर्वेला के सदृश वर्त्तमान (वाजेन) विज्ञान के साथ (प्रचेताः) उत्तमता से सत्य अर्थ की जनानेवाली होती हुई (गृणतः) मुझ स्तुति करनेवाले की (स्तोमम्) प्रशंसा का (जुषस्व) सेवन करो, जिससे कि (पुराणी) प्रथम नवीन (पुरन्धिः) बहुत उत्तम गुणों को धारण करनेवाली (युवतीः) पूर्ण चौबीस वर्षवाली हुई (व्रतम्) कर्म को (अनु) अनुकूलता में (चरसि) करती हो, इससे हृदयप्रिय हो ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे स्त्रियों ! जैसे प्रातर्वेला सम्पूर्ण प्राणियों को जगाय के कार्य्यों में प्रवृत्त करती हैं, वैसे ही पतिव्रता होकर पतियों के साथ अनुकूलता से वर्त्ति प्रशंसित होओ ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ प्रातर्वेलोपमया स्त्रीगुणानाह।

अन्वय:

हे वाजिनि मघोनि देवि विश्ववारे स्त्रि त्वमुष इव वाजेन प्रचेताः सती गृणतो मम स्तोमं जुषस्व यतः पुराणी पुरन्धिर्युवतिस्सती व्रतमनुचरसि तस्माद्धृद्यासि ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उषः) उषर्वद्वर्त्तमाने (वाजेन) विज्ञानेन (वाजिनि) विज्ञानवती (प्रचेताः) प्रकृष्टतया सदर्थज्ञापिका (स्तोमम्) श्लाघाम् (जुषस्व) (गृणतः) स्तोतुः (मघोनि) परमधनयुक्ते (पुराणी) पुरा नवीना (देवि) कमनीये (युवतिः) पूर्णचतुर्विंशतिवर्षा (पुरन्धिः) या बहूञ्छुभगुणान्धरति (अनु) आनुकूल्ये (व्रतम्) कर्म (चरसि) (विश्ववारे) सर्वतो वरणीये ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे स्त्रियो यथोषसः सर्वान् प्राणिनः प्रबोध्य कार्येषु प्रवर्त्तयन्ति तथैव पतिव्रता भूत्वा पतिभिस्सहाऽऽनुकूल्येन वर्त्तित्वा प्रशंसिता भवत ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात प्रातःकाळ, स्त्री, विद्युत व कारागीर लोकांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या अर्थाची पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.

भावार्थभाषाः - हे स्त्रियांनो! जशी प्रातःकाळची वेळ संपूर्ण प्राण्यांना जागृत करून कार्यात प्रवृत्त करते तसेच पतिव्रता बनून पतीच्या अनुकूल वागून प्रशंसित व्हा. ॥ १ ॥